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अमरूद को अंग्रेजी में ग्वावा कहते हैं, अमरुद का वानस्पतिक नाम सीडियम ग्वायवा, प्रजाति सीडियम, जाति ग्वायवा, कुल मिटसी है, वैज्ञानिकों का विचार है कि अमरूद की उत्पति अमरीका के उष्ण कटिबंधीय भाग तथा वेस्ट इंडीज़ से हुई है, भारत की जलवायु में यह इतना घुल मिल गया है कि इसकी खेती यहाँ अत्यंत सफलतापूर्वक की जाती है, पता चलता है कि १७ वीं शताब्दी में यह भारतवर्ष में लाया गया, अधिक सहिष्ण होने के कारण इसकी सफल खेती अनेक प्रकार की मिट्टी तथा जलवायु में की जा सकती है |
amrud ki kheti kaise kare |
जाड़े की ऋतु मे यह इतना अधिक तथा सस्ता प्राप्त होता है कि लोग इसे निर्धन जनता का एक प्रमुख फल कहते हैं, यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक फल है, इसमें विटामिन सी अधिक मात्रा में पाया जाता है, इसके अतिरिक्त विटामिन ए तथा बी भी पाए जाते हैं, इसमें लोहा, चूना तथा फास्फोरस अच्छी मात्रा में होते हैं, अमरूद की जेली तथा बर्फी बनाई जाती है, इसे डिब्बों में बंद करके सुरक्षित भी रखा जा सकता है, अमरुद नाम संस्कृत के अमरुद्ध शब्द का अपभ्रंस है, आम के प्रभाव को रुद्ध करने की ताकत रखने वाला फल अमरुद्ध होता है, यही प्रचलित शब्द अमरुद है।
अमरूद का फल वृक्षों की बागवानी मे एक महत्वपूर्ण स्थान है, इसकी बहुउपयोगिता एवं पौष्टिकता को ध्यान मे रखते हुये लोग इसे गरीबों का सेब कहते हैं, इसमे विटामिन सी प्रचुर मात्रा मे पाया जाता है, इससे जैम, जैली, नेक्टर आदि परिरक्षित पदार्थ तैयार किये जाते है।
इसकी सफल खेती अनेक प्रकार की मिट्टी तथा जलवायु में की जा सकती है, जाड़े की ऋतु मे यह इतना अधिक तथा सस्ता प्राप्त होता है कि लोग इसे गरीबों का सेब कहते हैं, यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक फल है, इसमें विटामिन सी अधिक मात्रा में पाया जाता है, इसके अतिरिक्त विटामिन ए तथा बी भी पाये जाते हैं, इसमें लोहा, चूना तथा फास्फोरस अच्छी मात्रा में होते हैं, अमरूद की जेली तथा बर्फी बनायी जाती है, इसे डिब्बों में बंद करके सुरक्षित भी रखा जा सकता है।
अमरूद की सफल खेती उष्ण कटीबंधीय और उपोष्ण-कटीबंधीय जलवायु में सफलतापूर्वक की जा सकती है, उष्ण क्षेत्रों में तापमान व नमी के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहने पर फल वर्ष भर लगते हैं, अधिक वर्षा वाले क्षेत्र १२४५ सेमी से अधिक इसकी बागवानी के उपयुक्त नहीं है, छोटे पौधे पर पाले का असर होता है, जब कि पूर्ण विकसित पौधे ४४ डिग्री सेल्सियस तक का तापमान आसानी से सहन कर सकते हैं।
अमरूद के लिए गर्म तथा शुष्क जलवायु सबसे अधिक उपयुक्त है, यह गरमी तथा पाला दोनों सहन कर सकता है, केवल छोटे पौधे ही पाले से प्रभावित होते हैं, यह हर प्रकार की मिट्टी में उपजाया जा सकता है, परंतु बलुई दोमट इसके लिए आदर्श मिट्टी है, भारत में अमरूद की प्रसिद्ध किस्में इलाहाबादी सफेदा, लाल गूदेवाला, चित्तीदार, करेला, बेदाना तथा अमरूद सेब हैं।
अमरूद का प्रसारण अधिकतर बीज द्वारा किया जाता है, परंतु अच्छी जातियों के गुणों को सुरक्षित रखने के लिए आम की भाँति भेटकलम द्वारा नए पौधे तैयार करना सबसे अच्छी रीति हैं, बीज मार्च या जुलाई में बो देना चाहिए, वानस्पातिक प्रसारण के लिए सबसे उत्तम समय जुलाई-अगस्त है, पौधे २० फुट की दूरी पर लगाए जाते हैं, अच्छी उपज के लिए दो सिंचाई जाड़े में तथा तीन सिंचाई गर्मी के दिनों में करनी चाहिए, गोबर की सड़ी हुई खाद या कंपोस्ट, १५ गाड़ी प्रति एकड़ देने से अत्यंत लाभ होता है, स्वस्थ तथा सुंदर आकर का पेड़ प्राप्त करने के लिए आरंभ से ही डालियों की उचित छँटाई करनी चाहिए, पुरानी डालियों में जो नई डालियाँ निकलती हैं, उन्हीं पर फूल और फल आते हैं, वर्षा ऋतु में अमरूद के पेड़ फूलते हैं और जाड़े में फल प्राप्त होते हैं, एक पेड़ लगभग ३० वर्ष तक भली भाँति फल देता है और प्रति पेड़ ५०० से ६०० फल प्राप्त होते हैं, कोड़े तथा रोग से वृक्ष को साधारणत: कोई विशेष हानि नहीं होती।
अमरूद को लगभग प्रत्येक प्रकार की भूमि में उगाया जा सकता है, परंतु अच्छे उत्पादन में उपजाऊ बलुई दोमट भूमि अच्छी रहती है, बलुई भूमि मिटटी ४.५ में पीएच मान तथा चूनायुक्त भूमि में ८.२ पीएच मान पर भी इसे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, अधिक तापमान ६ से ६.५ पीएच मान पर प्राप्त होता है, कभी-कभी क्षारीय भूमि में उकठा रोग के लक्षण नजर आते है, इलाहाबादी सफेदा में ०.३५% खारापन सहन करने कि क्षमता रहती है।
अमरूद की प्रमुख किस्में जो बागवानी के लिए उपयुक्त पायी गयी है, वे इस प्रकार हैं, इलाहाबादी सफेदा, सरदार ४९ लखनऊ, सेबनुमा अमरूद, इलाहाबादी सुरखा, बेहट कोकोनट आदि हैं, इसके अतिरिक्त चित्तीदार, रेड फ्लेस्ड, ढोलका, नासिक धारदार आदि किस्में हैं।
इलाहाबादी सफेदा बागवानी हेतु उत्तम है, सरदार ४९ लखनऊ व्यावसायिक दृष्टि से उत्तम प्रमाणित हो रही है, इलाहाबादी सुरखा अमरूद की नयी किस्म है, यह जाति प्राकृतिक म्युटेंट के रूप में विकसित हुई है।
पौधे लगाने का उचित समय जुलाई-अगस्त है, जहां पर सिंचाई की व्यवस्था हो वहां फरवरी मार्च में भी लगाये जा सकते हैं, पौध रोपण से पूर्व भूमि को अच्छी तरह जुताई कर के समतल कर लेना चाहिए, उसके ६.० गुना ६.० मीटर की दूरी पर ६० गुना ६० सेमी के २० से २५ गड्ढों में १ किलोग्राम सडी हुई गोबर की खाद और आर्गनिक खाद और ऊपरी मिट्टी मिश्रण में मिलाकर गड्ढे को अच्छी तरह से भर देते हैं, इसके बाद खेत की सिंचाई कर देते हैं, जिससे की गड्ढे की मिटटी बैठ जाये, इस प्रकार पौधा लगाने के लिए गड्ढा तैयार हो जाता है, इसके बाद जरूरत के अनुसार गड्ढा खोदकर उसके बीचों बीच लगाकर चारों तरफ से अच्छी प्रकार दबाकर फिर हलकी सिंचाई कर देते हैं।
पौधे में सिंचाई शरद ऋतु में १५ दिन के अंतर पर तथा गर्मियों में ७ दिन के अंतर पर करते रहना चाहिए, जब कि फल देने वाले पौधे से फल लेने के समय को ध्यान में रखकर सिंचाई करनी चाहिए, उदहारण के लिए बरसात में फसल लेने के लिए गर्मी में सिंचाई की जाती है, जब कि सर्दी में अधिक फल लेने के लिए गर्मी में सिंचाई नहीं करनी चाहिए।
नवस्थापित उडान में १० से १५ दिन के अंतर पर थालों की निराई-गुडाई करके खरपतवार को निकालते रहना चाहिए, जब पौधे बड़े-बड़े हो जायें, तब वर्षा ऋतु में बाग की जुताई कर देते हैं, जिससे खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।
अमरूद में कीड़े व बीमारी का प्रकोप मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में होता है, जिससे पौधों में वृद्धि तथा फलों की गुणवत्ता दोनों पर बुरा प्रभाव पडता है, अमरूद के पेड़ में मुख्य रूप से छाल खाने वाले कीड़े, फल छेदक, फल में अंड़े देने वाली मक्खी, शाखा बेधक आदि कीट लगते हैं, इन कीटों के प्रकोप से बचने के लिए नीम की पत्तियों की उबले पानी का छिडकाव करना चाहिए, आवश्यकता पडने पर कीट लगे पौधे को नष्ट कर देना चाहिए।
अमरूद में बीमारियों का प्रकोप मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में होता है, जिससे की पौधों कि वृद्धि तथा फलों की गुणवत्ता दोनों पर बुरा प्रभाव पडता है, अमरूद के प्रमुख रोग उकठा रोग, तना कैंसर आदि हैं, भूमि की नमी भी उकठा रोग को फैलाने में सहायक होती है, रोगी पौधे को तुरंत निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए, तना कैंसर रोग फाइसेलोस्पोरा नामक कवक द्वारा होता है, इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रसित डालियों को काटकर जाला देना चाहिए तथा कटे भाग पर ग्रीस लगा कर बंद कर देना चाहिए।
फूल आने के लगभग १२० से १४० दिन बाद फल पकने शुरू हो जाते हैं, जब फलों का रंग हरा से हल्का पीला पडने लगे तब इसकी तुडाई करते हैं, अमरूद की उपज किस्म, देख-रेख और उम्र पर निर्भर होती है, एक पूर्ण विकसित अमरूद के पौधे से प्रतिवर्ष ४०० से ६०० फल तक प्राप्त होते हैं, जिनका वजन १२५ से १५० किलो ग्राम होता है, इसकी भंडारण क्षमता बहुत ही कम होती है, इसलिए इनकी प्रति दिन तुडाई करके बाजार में भेजते रहना चाहिए।
उत्तरी व पूर्वी भारत मे वर्ष मे दो बार फलने एवं पश्चिमी व दक्षिणी भारत मे वर्ष मे तीन बार फल आता है, जिसमे प्रथम प्रकार, दूसरे प्रकार एवं तीसरे प्रकार के फल आते है, भारत मे प्रथम प्रकार जो शरद मौसम में फल देता है, वह दूसरे प्रकार एवं तीसरे प्रकार से ज्यादा पसंद किये जाते है, क्योंकि अन्य दोनो प्रकार की तुलना मे प्रथम प्रकार के फल गुणवत्ता, स्वाद एवं उपज मे सर्वोत्तम रहते है, फलो की गुणवत्ता के हिसाब से वैसे तो तीसरे प्रकार भी अच्छा रहता है, लेकिन इससे उपज कम मिलती है, अतः प्रथम प्रकार मे अधिक फूलों/फलो का उत्पादन, स्वाद एवं गुणवत्तायुक्त फल प्राप्त करने के लिये वर्षा ऋतु वाली फसल अर्थात दूसरे प्रकार के फूलों का नियंत्रण करना जरूरी हो जाता है, क्योंकि इस फसल की गुणवत्ता अच्छी नही रहती एवं बाजार मूल्य भी नही मिल पाता।
इस प्रकिया मे पेड़ों को गर्मी मे पानी नही दिया जाता है, जिससे पत्तियां गिर जाती हैं एवं पेड़ सुसुप्तावस्था मे चले जाते हैं, इस समयावधि मे पेड़ अपनी शाखाओ मे खाद पदार्थ का संरक्षण करते है, इसके बाद मध्य मई मे बगीचो की गुड़ाई करके व खाद देने के बाद सिंचाई की जाती है, जिससे २५ से ३० दिनो बाद प्रथम प्रकार मे अधिक मात्रा मे फूल खिलते एवं शरद ऋतु मे फल तैयार हो जाते है।
इस विधि मे जाड़ो के आस-पास की ऊपरी मृदा को अप्रेल-मई मे सावधानी पूर्वक खोदकर बाहर निकाल दिया जाता है, इससे जाड़ो को सूर्यप्रकाश अधिक मात्रा मे प्राप्त होता है, जिसके परिणामस्वरूप मृदा मे नमी की कमी हो जाती है एवं पत्तियां गिरने लगती है एवं पेड़ सुसुप्तावस्था मे चले जाते हैं, २० से २५ दिनो बाद जाड़ो को मिट्टी द्वारा फिर से ढंक दिया जाता है एवं खाद देकर सिंचाई कर दिया जाता है।
जिस पेड़ की शाखाएं सीधी रहती है वह बहुत कम फल देती है, अतः ऐसे पेड़ो की सीधी शाखाओ को अप्रेल-जून माह मे झुकाकर जमीन मे बांस या खूंटा गाड़कर रस्सी की सहायता से बांध दिया जाता है एवं शाखाओ की शीर्ष ऊपरी १० से १२ जोड़ी पत्तियो को छोड़कर अन्य छोटी-छोटी शाखाओ, पत्तियो, फूलों व फलो को कांट-छांटकर अलग कर दिया जाता है, जिससे झुकाने के बाद मुख्य शाखाओ मे १० से १५ दिनो के अंदर सहायक छोटी शाखाएं आ जाती है एवं निष्क्रिय कलियां भी सक्रिय हो जाती है, झुकाने के ४० से ४५ दिनों बाद अधिक मात्रा मे फूल आने लगते है व फल अच्छे प्राप्त होते है।
इस विधि मे ऐसे प्रकार जिनमे हमे फल नही चाहिये, उक्त प्रकार के फूलों के खिलने पर, उसे झड़ाने के लिये कुछ वृ़द्धि नियामको जैसे एन.ए.ए १००० पी.पी.एम, नेप्थिलिन एसिटामाईड ५० पी.पी.एम, २ से ४ डी ५० से १०० पी.पी.एम एवं यूरिया १० प्रतिशत आदि का छिड़काव के रूप मे प्रयोग किया जाता है।
जून के महीने मे उर्वरकों का प्रयोग करके आने वाले प्रथम प्रकार में फूलोंं की संख्या को बढ़ाया जा सकता है, अतः इन प्रकियाओ को अपनाकर किसान अच्छी, ज्यादा एवं गुणवत्ता युक्त फल प्राप्त कर सकता है, जिसे बेचकर वह उचित बाजार मूल्य प्राप्त कर सकता है एवं आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो सकता है।
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