लाही की खेती कैसे करे
लाही की खेती तिलहन फसल के रूप में की जाती है, लाही को तोरिया के नाम से भी जाना जाता है, जिसके बीजों में तेल की मात्रा 40 से 45 प्रतिशत तक पाई जाती है, इसकी खेती किसान भाई खरीफ और रबी की फसल के बीच कैंच फसल के रूप में करते हैं, इसकी खेती ज्यादातर उत्तर प्रदेश में की जाती है, क्योंकि बाढ़ के आने की वजह से वहां खरीफ की फसल नही हो पाती है, इस कारण किसान भाई लाही को उगाकर उसकी भरपाई कर लेते हैं।
तोरिया की फसल को बारिश ख़तम होने के तुरंत बाद उगाया जाता है, इसकी खेती सरसों की तरह ही होती है, इसकी उत्तम पैदावार लेने के लिए इसे दोमट मिट्टी में उगाना चाहिए, इसकी खेती के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है, तोरिया की खेती में ज्यादा पानी की भी जरूरत नही होती है।
उपयुक्त भूमि
लाही की खेती के लिए उचित जल निकासी वाली हल्की रेतीली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है, इसके अलावा इसे और भी कई तरह की भूमि में उगा सकते हैं, इसकी खेती के लिए अधिक क्षारीय और लवणीय भूमि उपयुक्त नही होती है। इसके लिए भूमि का पी.एच. मान 7 के आसपास होना चाहिए।
जलवायु और तापमान
तोरिया की खेती के लिए शुष्क और आद्र जलवायु उपयुक्त होती है, इसकी खेती ऐसे मौसम में की जाती है, जब ना ही अधिक सर्दी होती है और ना ही अधिक गर्मी इस कारण मौसम का प्रभाव इस पर नही पड़ता है, इसके पौधों को बारिश की भी ज्यादा जरूरत नही होती है।
इसके पौधों को अंकुरती होने और विकास करने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती हैं, लेकिन इसके पौधे अधिकतम 35 डिग्री तापमान को भी सहन कर सकते हैं।
उन्नत किस्में
लाही की काफी उन्नत किस्में हैं, जिन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में उगाया जाता हैं, इन किस्मों को उनकी पैदावार के आधार पर तैयार किया गया है :-
संगम
तोरिया की इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 112 दिन बाद पककर तैयार हो जाते है, जिसका प्रति एकड़ उत्पादन लगभग 6 क्विंटल के आसपास पाया जाता है, लाही की इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा 44 प्रतिशत से ज्यादा पाई जाती है।
टी.एच. - 68
लाही की ये एक जल्दी पकने वाली किस्म है, जिसके पौधे बीज रोपाई के 80 से 90 दिन बाद पककर कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं, इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 12 से 15 क्विंटल तक होता है, इस किस्म को गेहूँ की फसल लेने के लिए जल्दी उगाया जाता है।
टी. - 9
लाही की इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 से 95 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 12 से 15 क्विंटल तक पाया जाता है, इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा 40 से 43 प्रतिशत तक पाई जाती है, इस किस्म की कटाई के बाद गेहूँ की पछेती किस्मों को आसानी से उगाया जा सकता है।
पी.टी. - 30
तोरिया की इस किस्म को तराई वाले मैदानी क्षेत्रों के लिए तैयार किया गया है, इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 क्विंटल के आसपास पाया जाता है, इसके बीजों में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत से ज्यादा पाई जाती है।
भवानी
लाही की ये सबसे पहले पैदावार देने वाली किस्म है, इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 70 से 80 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं, जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 से 12 क्विंटल तक पाया जाता है।
तपेश्वरी
तोरिया की इस किस्म के पौधे लगभग 80 से 90 दिन बाद पककर तैयार हो जाते हैं, इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 क्विंटल के आसपास पाया जाता है, इस किस्म में बीजों में तेल की मात्रा 40 से 42 प्रतिशत तक पाई जाती है।
खेत की तैयारी
लाही की खेती के लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर उसे खुला छोड़ दें, उसके कुछ दिन बाद उसमें उचित मात्रा में गोबर की खाद डालकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर खाद को मिट्टी में मिला दें, उसके बाद खेत में पानी छोड़कर उसका पलेव कर दे, पलेव करने के तीन से चार दिन बाद खेत में रासायनिक उर्वरक की उचित मात्रा का छिडकाव कर रोटावेटर चला दें, उसके बाद खेत में पाटा चलाकर उसे समतल बना लें।
बीज रोपाई का तरीका और समय
लाही की खेती में बीज की रोपाई ड्रिल और छिडकाव विधि से की जाती है, ड्रिल विधि में इसके बीजों की रोपाई समतल भूमि में की जाती है, ड्रिल के माध्यम से इसके बीजों की रोपाई सरसों की तरह पंक्तियों में की जाती है, पंक्तियों में इसके बीजों की रोपाई करते वक्त बीजों के बीच 10 से 15 सेंटीमीटर दूरी होनी चाहिए, जबकि पंक्ति से पंक्ति की दूरी एक फिट के आसपास होनी चाहिए।
इसके अलावा कुछ किसान भाई इसकी रोपाई छिडकाव विधि से भी करते हैं, जिसमें किसान भाई समतल खेत में इसके बीजों को छिड़क देंते हैं, उसके बाद कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की दो हल्की जुताई कर देते हैं, जिससे बीज मिट्टी में अच्छे से मिल जाता है, दोनों विधि से रोपाई के दौरान बीज को जमीन में तीन से चार सेंटीमीटर नीचे उगाया जाना चाहिए, इससे बीज का अंकुरण अच्छे से होता है।
लाही के बीज को खेत में अगस्त माह के आखिरी सप्ताह और सितम्बर माह तक उगा देना चाहिए, एक हेक्टेयर में ड्रिल के माध्यम से रोपाई करने के लिए चार किलो बीज काफी होता है, जबकि छिडकाव विधि के लिए 5 से 6 किलो बीज की जरूरत होती है।
पौधों की सिंचाई
लाही के पौधों को सिंचाई की ज्यादा जरूरत नही होती है, क्योंकि इसकी रोपाई बारिश के मौसम के बाद की जाती है, जिस कारण खेत में नमी की मात्रा अधिक समय तक बनी रहती है, इसके पौधों को पानी की जरूरत फूल खिलने के दौरान होती है, जब पौधे पर फूल खिलने का समय आयें उस दौरान इसके पौधों की सिंचाई कर देनी चाहिए और उसके बाद दूसरी सिंचाई फलियों में बीज बनने के दौरान करनी चाहिए।
उर्वरक की मात्रा
लाही की खेती के लिए शुरुआत में 10 गाडी पुरानी गोबर की खाद को खेत की जुताई के समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालकर मिट्टी में मिला दें, इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में एक बोरा एन.पी.के. की मात्रा को खेत की आखिरी जुताई के वक्त खेत में छिड़क देना चाहिए और जब पौधे पर फूल खिल रहे होते हैं, तब 25 किलो यूरिया सिंचाई के साथ देने से पैदावार अधिक मिलती है।
खरपतवार नियंत्रण
लाही की खेती में खरपतवार नियंत्रण पौधों की नीलाई-गुड़ाई कर किया जाता है, इसके लिए पौधों की दो बार नीलाई-गुड़ाई कर देनी चाहिए, इसके पौधों की पहली नीलाई-गुड़ाई बीज रोपाई के लगभग 25 दिन बाद कर देनी चाहिए और दूसरी नीलाई-गुड़ाई पहली नीलाई-गुड़ाई के 20 दिन बाद करनी चाहिए, इसके अलावा रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए बीज रोपाई के तुरंत बाद पेन्डीमेथलीन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए।
पौधों में लगने वाले रोग और उनकी रोकथाम
लाही की खेती में कई तरह के रोग देखने को मिलते हैं, जिनकी समय रहते रोकथाम ना की जाए, तो पैदावार काफी कम मिलती है :-
कातरा
कातरा को बालदार सुंडी के नाम से भी जानते हैं, इस रोग की सुंडी लाल, पीली, हरी और चितकबरी होती है, जिसके शरीर पर रोएं पाए जाते हैं, इस रोग के कीट पौधे के सभी कोमल भागों को खाकर पौधे को नुकसान पहुँचाते हैं, इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर सर्फ के घोल का छिडकाव करना चाहिए, इसके अलावा मैलाथियान या क्यूनालफास की उचित मात्रा के छिडकाव से भी लाभ मिलता है।
माहू
माहू को चेपा के नाम से भी जाना जाता है, इस रोग के किट बहुत छोटे होते हैं, जिनका रंग हरा और पीला होता है, इस रोग के किट पौधे पर समूह में दिखाई देते हैं, जो पौधे का रस चूसकर पौधे के विकास को रोक देते हैं, इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोक्रोटोफास या एजाडिरेक्टिन की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए।
आरा मक्खी
लाही के पौधों पर लगने वाला ये एक कीट रोग है, इस रोग के कीट का लार्वा पौधे की पत्तियों को खाकर पौधे को नुकसान पहुँचाता है, इसकी सुंडी काले सलेटी रंग की होती है, जिसका प्रकोप बढ़ने पर पौधे पत्तियों रहित हो जाते हैं, इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर पैराथियोन या मैलाथियान की उचित मात्रा का छिडकाव करना चाहिए।
सफेद गेरूई
इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों की निचली सतह पर सफ़ेद रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिसके कारण पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है, इस रोग की वजह से पौधे का शीर्ष भाग विकृत हो जाता है, जिससे पौधे पर फलियाँ नही बनती है, जिसका असर पैदावार पर अधिक होता है, इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेटालेक्सिल का छिडकाव करना चाहिए और बीज की रोपाई के वक्त उसे मेटालेक्सिल से ही उपचारित करना अच्छा होता है।
पत्ती धब्बा
इस रोग के लगने पर पौधे की पत्तियों पर गहरे कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिसका प्रकोप बढ़ने पर धब्बों का आकार बढ़ जाता है, जिससे पूरी पत्ती झुलसी हुई दिखाई देती है, जो कुछ दिन बाद सूखकर गिर जाती है, इस रोग की रोकथाम के लिए लाही के बीजों को थीरम या बाविस्टीन से उपचारित करना चाहिए।
फसल की कटाई और गहाई
लाही के पौधे बीज रोपाई के लगभग 80 से 100 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं, कटाई के दौरान पौधों की फलियों का रंग हल्का पीला हो जाता है और फलियों में दाने काले, पीले दिखाई देने लगते हैं, इस दौरान इसकी फलियों को काट लेना चाहिए, इसकी फलियों को काटकर उन्हें कुछ दिन तेज़ धूप में सूखाकर मशीन की सहायता से निकलवा लिया जाता है।
पैदावार और लाभ
लाही की विभिन्न किस्मों की औसतन पैदावार 12 से 15 क्विंटल तक पाई जाती है, जिसका बाज़ार भाव 4 हज़ार रुपये प्रति क्विंटल के आसपास पाया जाता है, जिससे किसान भाइयों की कम समय में ही एक हेक्टेयर से एक बार में 50 हज़ार तक की कमाई हो जाती है।
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