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चना देश की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है, चने को दालों का राजा भी कहा जाता है, पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्राम वसा, 61.65 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 149 मि.ग्रा. कैल्शियम, 7.2 मि.ग्रा. लोहा, 0.14 मि.ग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मि.ग्रा. नियासिन पाया जाता है, इसकी हरी पत्तियां साग और हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में प्रयुक्त होती हैं, चने की दाल से अलग किया हुआ छिलका और भूसा पशु चाव से खाते हैं, दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिर करती है, जिससे खेत की उर्वराशक्ति बढ़ती है, देश में चने की खेती मुख्य रूप से उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान तथा बिहार में की जाती है, सबसे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्यप्रदेश है।
chana ki kheti |
चना एक शुष्क एवं ठंडी जलवायु की फसल है, इसे रबी मौसम में उगाया जाता है, इसकी खेती के लिए मध्यम वर्षा (60 से 90 सें.मी. वार्षिक) और सर्दी वाले क्षेत्र सर्वाधिक उपयुक्त हैं, फसल में फूल आने के बाद वर्षा का होना हानिकारक होता है, वर्षा के कारण फूल में परागकण एक दूसरे से चिपक जाते हैं, जिससे बीज नहीं बनते हैं, इसकी खेती के लिए 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है।
चने की खेती दोमट भूमि से मटियार भूमि में सफलतापूर्वक की जा सकती है, चने की खेती हल्की से भारी भूमि में भी की जाती है, किन्तु अधिक जलधारण एवं उचित जलनिकास वाली भूमि सर्वोत्तम रहती है, मृदा का पी-एच मान 6 से 7.5 उपयुक्त रहता है, असिंचित अवस्था में मानसून शुरू होने के पूर्व गहरी जुताई करने से रबी के लिए भी नमी संरक्षण होता है, एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल तथा 2 जुताई देसी हल से की जाती है, पिफर पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है।
समय पर बुआई के लिए : जी.एनजी. 1581 (गणगौर), जी.एन.जी. 1958 (मरुधर), जी.एन.जी. 663, जी.एन.जी. 469, आर.एस.जी. 888, आर.एस.जी. 963, आरएस.जी. 973, आर.एस.जी. 986,
देरी से बुआई के लिए : जी.एन.जी. 1488, आर.एसजी. 974, आर.एस.जी. 902, आर.एस.जी. 945 प्रमुख हैं।
एल 550 : यह 140 दिनों में पकने वाली किस्म है, इसकी उपज 10 से 13 क्विंटल/हेक्टेयर है, इसके 100 दानों का वजन 24 ग्राम है।
सी 104 : यह किस्म 130 से 135 दिनों में पककर तैयार हो जाती है, यह औसतन 10 से 13 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है, इसके 100 दानों का वजन 25 से 30 ग्राम होता है।
अन्य किस्में : जी.एन.जी. 1669 (त्रिवेणी), जी.एन.जी. 1499, जी.एन.जी. 1992.
10 अक्टूबर से 5 नवम्बर तक।
मोटे दानों वाला चना 80 से 100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, सामान्य दानों वाला चना 70 से 80 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, काबुली चना (मोटा दाना) 100 से 120 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर।
अच्छी पैदावार के लिए 20 से 25 टन सड़ी गोबर की खाद खेत की तैयारी के समय खेत में मिलाएं, उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करें, नाइट्रोजन 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर (100 कि.ग्रा. डाई अमोनियम फॉस्पेफट), फॉस्फोरस 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, जिंक सल्फेट 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर।
जे.जी. 315 : यह किस्म 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है, औसत उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, इसके 100 दानों का वजन 15 ग्राम है एवं बीज का रंग बादामी है तथा देर से बोने के लिए उपयुक्त किस्म है।
विजय : सर्वाधिक उपज देने वाली 90 से 105 दिनों में तैयार होने वाली यह किस्म है, यह सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है, इस किस्म में अधिक शाखायें व मध्यम ऊंचाई वाले पौधे होते हैं, उपज क्षमता 24 से 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
जी.एन.जी. 2171 (मीरा) : राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली जैसे उत्तरी- पश्चिमी मैदानी सिंचित क्षेत्रों के लिए अधिसूचित किस्म है, दाना मध्यम आकार व सुनहरे रंग का, जड़ गलन, विल्ट व झुलसा रोग के प्रति सहनशील होता है, लगभग 150 दिनों में पककर तैयार होती है और उपज 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
जी.एन.जी. 2144 (तीज) : राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों के लिए अधिसूचित यह किस्म दोहरे फूल व 20 से 25 प्रतिशत दोहरी फली वाली है, देरी से बुआई योग्य इस किस्म की दिसंबर के पहले सप्ताह में भी बुआई कर सकते हैं, बुआई के 130 से 135 दिनों में तैयार होने के साथ ही इसकी औसत उपज 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
चने की बुआई कतारों में करें, 7 से 10 सें.मी. गहराई पर बीज डालें, कतार से कतार की दूरी 30 सें.मी. (देसी चने के लिए) तथा 45 सें.मी. (काबुली चने के लिए)।
फ्लूक्लोरेलिन 200 ग्राम (सक्रिय तत्व) का बुआई से पहले या पेंडीमेथालीन 350 ग्राम (सक्रिय तत्व) का अंकुरण से पहले 300 से 350 लीटर पानी में घोल बनाकर एक एकड़ में छिड़काव करें, पहली निराई-गुड़ाई बुआई के 30 से 35 दिनों बाद तथा दूसरी 55 से 60 दिनों बाद आवश्यकतानुसार करें।
आमतौर पर चने की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है, चने की फसल के लिए कम जल की आवश्यकता होती है, चने में जल उपलब्धता के आधार पर पहली सिंचाई फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिनों बाद एवं दूसरी सिंचाई दाना भरने की अवस्था पर अर्थात बोने के 75 दिनों बाद करनी चाहिए।
सूत्राकृमि : सूत्राकृमि के प्रकोप से पौधा अविकसित रह जाता है, जड़ें छोटी रह जाती हैं और उत्पादन प्रभावित होता है।
नियंत्रण : गर्मियों में गहरी जुताई करें, प्रतिरोधी किस्म का चयन करें, गैर-दलहनी फसलों जैसे मक्का, धान या मूंगफली को फसलचक्र में शामिल करें, रासायनिक नियंत्रण प्रकार के आधार पर 10 से 15 कि.ग्रा. काबार्फ्रेयरूआन प्रति एकड़ का प्रयोग करें।
चने की शुद्ध फसल से प्रति हेक्टेयर लगभग 20 से 25 क्विंटल दाना एवं इतना ही भूसा प्राप्त होता है, काबुली चने की पैदावार देसी चने से तुलना में थोड़ी कम होती है।
माहूं व चेंपा माहूं व चेंपा, पौधे का रस चूसकर इसे कमजोर करते हैं, इनके नियंत्रण के लिए 5 ग्राम थायोमेथाक्जम 25 डब्ल्यूजी जैसे एकतारा, अनंत या 5 ग्राम इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू.जी. एडमायर या एडफायर का प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
इस कीट की रोकथाम के लिए 200 मि.ली. फेनवालरेट (20 ई.सी.) या 125 मि.ली. साइपरमैथ्रीन (25 ई.सी.) को 250 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकतानुसार छिड़काव करें।
पीलापन तथा मुरझान की समस्या के नियत्रांण के लिए 45 ग्राम कॉपर आक्सीक्लारोइड या 30 ग्राम कार्बेन्डेजिम प्रति 15 लीटर पानी में मिलाकर जमीन में दें अथवा 100 ग्राम थायोफैनेट मिथाइल, 70 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. प्रति एकड़ 200 लीटर पानी में छिड़कें।
फूल व फली बनते समय अल्टरनेरिया झुलसा रोग हो सकता है, इससे पत्तियों पर छोटे, गोल और बैंगनी धब्बे बनते हैं, यह नमी अधिक होने से पूरी पत्ती पर फैल जाता है, नियंत्रण केलिए 3 ग्राम मैन्कोजेब, 75 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. या 2 ग्राम मेटालैक्सिल 8 प्रतिशत मैन्कोजेब, 64 प्रतिशत (संचार या रिडोमिल) प्रति लीटर पानी में छिड़कें।
परिपक्व अवस्था : जब पौधे के अधिकतर भाग और फलियां लाल भूरी हो कर पक जाएं तो कटाई करें, खलिहान की सफाई करें और फसल को धूप में कुछ दिनों तक सुखायें तथा गहाई करें, भंडारण के लिए दानों में 12 से 14 प्रतिशत से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए।
भंडारण : चने के भंडारण हेतु भंडार गृह की सफाई करें तथा दीवारों एवं फर्श की दरारों को मिट्टी या सीमेंट से भर दें, चूने की पुताई करें तथा 15 दिनों के अंतराल पर 2 से 3 बार 10 मि.ली. मेलाथियान 50 प्रतिशत ई.सी. प्रति लीटर पानी के घोल का 3 लीटर प्रति 100 वर्ग मीटर की दर से दीवार तथा फर्श पर छिड़काव करें।
अनाज भंडारण के लिए बोरियों को मेलाथियान 10 मि.ली. प्रति लीटर पानी के घोल में डुबोकर सुखाएं, इसके बाद ही अनाज को बोरियो में भरें।
भंडारण कीट के नियंत्रण के लिए एल्यूमिनियम फॉस्फाइड की गोली 3 ग्राम प्रति टन की दर से भंडारगृह में धूम्रित करें, बीज के लिए फसल की गहाई अलग से करके तथा अच्छी तरह सुखाकर भंडारण के लिए मैलाथियान 5 प्रतिशत डस्ट 250 ग्राम प्रति 100 कि.ग्रा. अनाज में मिलाएं।
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