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भारत में आलू का उत्पादन मुख्यतः सब्जी के लिए किया जाता है, यहाँ कुल उत्पादन का करीब ९० प्रतिशत सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है, सब्जी के अलावा इसका उपयोग डॉइस, रवा, आटा, फलेक, चिप्स, फ्रेंच फ्राई, बिस्कुट इत्यादि बनाने में किया जाता है, इसके अतिरिक्त इससे अच्छे प्रकार का स्टार्च, अल्कोहल आदि द्विपदार्थ के रूप में अच्छा प्रोटीन भी मिलता है |
aloo ki kheti kaise kare |
दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टियाँ जिसमें जैविक पदार्थ की बहुलता हो आलू की खेती के लिए उपयुक्त है, अच्छी जल निकासवाली, समतल और उपजाऊ जमीन आलू की खेती के लिए उत्तम मानी जाती है, आलू की खेती में तापमान का अधिक महत्व है, आलू की अच्छी उपज के लिए औसत तापमान कंद बनने के समय १७ से २१ डिग्री सेंटीग्रेड उपयुक्त माना जाता है |
सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह में हल से चार से पाँच बार जोताई कर देनी चाहिये, जिससे २५ सेंटीमीटर गहराई तक खेत तैयार हो जाए, हल्की तथा अच्छी जुती मिट्टी में आलू कंद अधिक बैठते हैं, प्रत्येक जुताई के बाद पाटा दे देने से मिट्टी समतल तथा भुरभूरी हो जाती है एवं खेत में नमी का संरक्षण भी होता है, अंतिम जुताई के साथ हीं २० टन प्रति हेक्टर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में देकर बराबर मिला देने से पैदावार में काफी वृद्धि हो जाती है, दीमक के प्रकोप से बचने के लिए अंतिम जोताई के समय ही २५ से ३० किलोग्राम प्रति हेक्टर की दर से लिन्डेन मिट्टी में मिला देना चाहिये |
प्रतिवर्ष एक ही खेत में आलू की खेती करने से मिट्टी कीड़े तथा रोगों का घर बन जाती है, इसलिए उचित फसल-चक्र अपनाकर खेत बदलते रहना चाहिये, आलू दो फसली और तीन फसली सघन खेती प्रणाली में साधारणतः अच्छी पैदावार देता है, कम दिनों में तैयार होने वाली किस्में जैसे कुफरी चन्द्रमुखी, कुफरी कुबेर इत्यादि बहुफसली सघन खेती में उपयुक्त पायी गयी है, आलू के साथ कुछ उपयुक्त फसल-चक्र इस प्रकार है, जैसे- मक्का-आलू-गेहूं, मक्का-आलू-प्याज, मक्का-आलू-भिंडी और मक्का-गेहूं-मूंग-आलू के साथ कुछ फसलों की मिश्रित खेती भी की जाती है, आलू के दो मेडों के बीच गेहूं फसल सफलता पूर्वक उगायी जा सकती है |
अगेती किस्मों में कुफरी चन्द्रमुखी, कुफरी कुबेर और कुफरी बहार इत्यादि मुख्य है, इन सब में कुफरी चन्द्रमुखी को अधिक उपयोगी माना गया है, ये किस्में ८० से ९० दिनों में तैयार हो जाती है और तीन फसली तथा चार फसली सघन खेती में भी अच्छी पैदावार दे देती है, मध्यकालीन फसल के लिए कुफरी बादशाह, कुफरी लालिमा, कुफरी बहार और कुफरी ज्योति अच्छी किस्में पायी गयी हैं, ये किस्में १०० दिनों में तैयार होती हैं |
अच्छी पैदावार के लिए बुवाई से पहले जुताई करते समय २०० से २५० क्विंटल गोबर की खाद मिटटी में मिलनी चाहिए, इसके साथ १८० किलोग्राम नाइट्रोजन, ८० किलोग्राम फास्फोरस, २५ किलोग्राम जिंक सल्फेट और १२० किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है, फिर इसके लिए ढाई क्विंटल यूरिया या ५ से ६ क्विंटल अमोनियम सल्फेट देना चाहिये, नाईट्रोजन का आधा हिस्सा बोते समय और शेष आधी मात्रा मिट्टी चढ़ाते समय देना उत्तम है, ५ से ६ क्विंटल सिंगल सुपर फॉस्फेट और करीब डेढ़ क्विंटल म्यूरियेट ऑफ पोटाश प्रति हेक्टर बोते समय देना चाहिये |
अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए उचित समय पर बोआई करना आवश्यक है, जब अधिकतम तथा न्यूनतम तापक्रम क्रमशः ३० व १८ डिग्री सेंटीग्रेड के बीच में रहे तो आलू की बोआई की जा सकती है, अक्टूबर के मध्य से नवम्बर के मध्य तक आलू की बोआई अवश्य कर देनी चाहिये |
सफल खेती के लिए स्वस्थ्य और रोगमुक्त बीज का उपयोग करना चाहिये, इसके लिए प्रमाणित बीज किसी विश्वसनीय संस्थान या एजेन्सी से खरीदना चाहिये, बोआई के पहले बीजों का पूर्ण रूप से अंकुरित करा लेना चाहिये, पूर्ण अंकुरण वाले बीज कंद जल्द उगते हैं तथा खेतों में कंद कम सडते हैं, पूर्ण बीज कंद का ही व्यवहार हमेशा करना चाहिये, अगर बड़े आकार के बीज कंद को काटना आवश्यक हो जाये, तो काटे हुए बीज कंदों को इन्डोफिल एम- ४५ दवा के ०.२ प्रतिशत घोल में १० मिनट तक डुबाकर उसे उपचारित कर लेना चाहिये |
बीजों को छाया में सुखाकर ही खेत में रोपना चाहिये, इससे बीज कंद कम सड़ते हैं और मृदा जनित फफंदों से इन्हें छुटकारा मिल जाता है, आलू का बीज दर उनके आकार पर निर्भर करता है, बड़े आकार का बीज कंद अधिक लगता है, लेकिन पैदावार अधिक होती है, बहुत छोटे आकार के बीज कंद से पैदावार कम होती है, इसलिए मध्यम आकार का बीज कंद ही उपयोग में लाना चाहिये, ४० से ५० ग्राम आकार का बीज लगाने से एक हेक्टर में ४० से ५० क्विंटल और छोटे आकार २५ से ३० ग्राम का लगाने पर २५ से ३० क्विंटल बीज की आवश्यकता होती है |
खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेने के बाद बोआई के लिए ५० सेंटीमीटर की दूरी पर मेड बना ली जाती हैं, उसमें रासायनिक खादों का मिश्रण देकर मिट्टी में अच्छे प्रकार मिला लिया जाता है, मेडों की २० से २० सेंटीमीटर की दूरी पर बीज को रखकर उसे १० सेंटीमीटर ऊँची मेड़ से ढक दिया जाता है, बुआई के बाद दो मेड़ों के बीच में सिंचाई की नाली बना दी जाती हैं, जिससे सिंचाई में सुविधा हो |
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