को
lahikikheti
- लिंक पाएं
- X
- ईमेल
- दूसरे ऐप
नींबू का उत्पादन व्यापारिक दृष्टिकोण से उष्णकटिबंधीय एवं उप-उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में किया जाता है, जहाँ इस जाति में एसिड लाईम मौसमी एवं मीठे नारंगी के बाद तीसरा मुख्य फसल है, वहीँ दूसरी तरफ नींबू का उत्पादन सिमित क्षेत्रों में किया जाता है, भारत दुनिया के देशों में नींबू उत्पाद में ५वां स्थान रखता है, भारत संभवतः दुनिया में एसिड लाईम का सबसे बड़ा उत्पादक देश है, इसका उत्पादन प्रायः भारत के सभी प्रदेशों में होता है, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात, बिहार, हिमाचल प्रदेश में इसकी प्रचुर मात्रा में खेती होती है, भारत में लेमन, लाईम की अपेक्षा कम लोकप्रिय है, फिर भी इसकी खेती व्यापारिक दृष्टिकोण से पर्याप्त मात्रा में पंजाब, राजस्थान एवं उत्तरप्रदेश के तराई क्षेत्रों में की जाती है।
नींबू की खेती कैसे करे |
एसिड लाईम के अतिरिक्त स्वीट लाईम, टाहिटी लाईम एंव रंगपुर लाईम की सिमित खेती भी भारत में की जाती है, उत्तर भारत में स्वीट लाईम इस जाती का मुख्य फल है, टाहिटी लाईम का कर्नाटक एंव तमिलनाडु प्रदेश में अच्छा उत्पादन होता है, फिर भी मीठा एवं टाहिटी लाईम व्यापारिक उत्पादन दृष्टिकोण से एसिड लाईम को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है, रंगपुर लाईम की खेती मुख्यतः प्रकन्द के लिए की जाती है।
एसिड लाईम के लिए उष्णकटिबंधीय जलवायु की आवश्यकता होती है, नींबू के सबसे कोमल फल होने के कारण इसकी खेती देश के सभी भागों में की जाती है, जो पाला से प्रभावित नहीं है इसकी खेती मुख्यतया सूखे क्षेत्रों में की जाती है, इसकी खेती के लिए गर्भ, मध्यवर्त्ती आर्द्र, तेज हवा एवं पालारहित जलवायु आदर्श मानी जाती है, उत्तरी भारत में जहाँ का तापक्रम विशेष अवसरों पर शून्य से नीचे गिर जाता है |
एसिड लाईम के व्यापारिक उत्पादन के लिए घातक सिद्ध हो जाता है, दक्षिण एवं मध्य भारत के पालारहित क्षेत्रों में जहाँ की वर्षा ७५० मि.मि. से ज्यादा नहीं होती, इस फसल का अच्छा प्रदर्शन होता है, इसकी खेती औसत समुद्री सतह से १००० मीटर की ऊंचाई पर भली प्रकार की जा सकती है, बशर्ते कि आर्द्रता कम एवं अनुकूल हो, असम एवं बंगाल के अधिक आर्दता वाले क्षेत्रों में जहाँ वर्षा १२०० मि.मि. से अधिक है, लाईम साइट्रस कैंकर एवं पाउडरी मिल्ड्यू से ज्यादा प्रभावित हो जाता है, जिसके कारण इसके पेड़ अनुत्पादक एवं कम अवधि के हो जाते हैं।
खेत की तैयारी वर्तमान परिस्थिति, विगत इतिहास एवं विकास की योजना पर निर्भर करता है, अगर भूमि पूर्व से खेती के अंतर्गत है एवं अच्छा प्रबन्धन है, तो कोई खास प्रक्रिया करना जरुरी नहीं है, वहीं दूसरी तरफ अगर मिट्टी नई हो तथा पूर्व में खेती नहीं की जा रही है, तो इस मिट्टी को जोत-कोड़कर बोआई के लिए तैयार करना होगा, इस मिट्टी पर आये हुए अनावश्यक वनस्पति, खरपतवार को अच्छे प्रकार से साफ कर देना चाहिए, इसके बाद २ से ३ बार गहरी जुताई करनी चाहिए तथा एक मौसम पूर्व मिट्टी को बराबर कर देना चाहिए।
लेमन, लाईम की अपेक्षा ज्यादा फैलते हैं, इसलिए लेमन की दूरी लाईम से अधिक होनी चाहिए, लेमन के लिए अनुशंसित दूरी प्रभेद, मिट्टी एवं वर्षा के आधार पर ६.० से ८.० मीटर होनी चाहिए, लाईम एवं लेमन के लिए वर्गाकार पद्धति उपर्युक्त होती है।
हल्के वर्षा वाले क्षेत्र में मानसून प्रारंभ जून-अगस्त माह होने पर बुआई करनी चाहिए, जिससे पौधे वर्षा का उपयोग कर सके, अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में बुआई वर्षा मौसम के अंत में करनी चाहिए, जिससे गढ़े में वर्षा जल जमाव की संभावना कम रहती है, सिंचाई वाले क्षेत्रों में बुआई फरवरी माह में करनी चाहिए, ग्रीष्मकालीन बुआई हेतु सुझाव नहीं दिया जाता है, क्योंकि इस मौसम में नये पौधे को जल्द सिंचाई देनी पड़ती है तथा गर्मी, हवा एवं अधिक तापक्रम से बचाना पड़ता है।
लेमन के पेड़ लाईम के पेड़ से अलग होते हैं, इन्हें थोड़ी अलग ट्रेनिंग एवं काट-छांट की जाती है, छोटे लेमन के पेड़ की प्रवृत्ति लंबे तथा फैलने वाली डालियाँ विकसित करने की होती है तथा फल बगल की डालियों पर लगते हैं जिस कारण डालियाँ झुक जाती है।
पूर्ण विकसित लेमन के पेड़ में ज्यादा डालियों की काट-छांट करनी पड़ती है, लंबी डालियों जिसके चोटियों में फल आने वाले हैं, उसकी कटाई कर देनी चाहिए, जिससे जमीन की नजदीक की डालियों में ज्यादा फल आये, उन डालियों को जिस पर कुछ वर्षों से फल आ गये हैं, उन्हें काट देना चाहिए तथा नए डालियों में उच्च गुणवत्ता वाले फल आने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए।
बगीचे के मिट्टी के व्यवस्थापन का अर्थ मिट्टी की जुताई, मल्चिंग एवं खरपतवार के नियंत्रण से है, बगीचा के गलियारे के मिट्टी की खरपतवार नियंत्रण हेतु जुताई, मिट्टी का नमी संरक्षण, उर्वरता संरक्षण हरी खाद मिट्टी तथा जड़ प्रणाली को हवादार बनाना चाहिए, मिट्टी की साल में दो बार जुताई प्रथम मानसून प्रारंभ होने के पूर्व तथा द्वितीय वर्षा समाप्त होने पर होनी चाहिए, बेसिन की मिट्टी को कड़ा होने से रोकने के लिए हल्की हाथ से कोड़ाई या होईंग प्रति ३ से ४ सिंचाई के पश्चात करनी चाहिए।
उष्णकटिबंधीय जलवायु में मल्चिंग का मुख्य स्थान है, साइट्रस के बगीचे में ग्रीष्म अवधि काफी खर्चीला है, इसलिए एक वर्ष में ६ माह मल्चिंग करना आवश्यक है, पेड़ के बेसिन का मल्चिंग, खरपतवार, नमी संरक्षण, तापक्रम बदलाव का नियंत्रक मिट्टी में जैविक गतिविधियों में वृद्धि के लिए आवश्यक है, निकौनी करने के पश्चात बेसिन को सुखी पत्तियों, धान का भूसा, मूंगफली का छिलका, लकड़ी का बुराद, सीरियल फसल का पत्तवार, नारियल का रेशा एवं सूखे घास से मल्चिंग कर देना चाहिए |
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें