पपीता उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों का प्रमुख फल है, झारखंड राज्य पपीते की खेती के लिए कई वर्षो से जाना जाता रहा है, यहाँ पर पपीते के किस्मों में अपार विविधता देखी गयी है, जिसके परिस्कण के अनेक किस्मों का भी विकास किया गया है, पपीते के पके फल सम्पूर्ण उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में खाए जाते हैं, पपीते का उपयोग जैम, पेय पदार्थ, आइसक्रीम एवं सीरप इत्यादि बनाने में किया जाता है, इसके बीज भी औषधीय गुणों के लिए महत्वपूर्ण हैं, कच्चे फल सब्जी के रूप में उपयोग किए जाते हैं।
पपीते के अधपके फलों के सूखे लेटेक्स से पपेन तैयार किया जाता है, यह एक प्रोतियो लिटिक एंजाइम है, जो पेपसीन की तरह कार्य करता है, इसका उपयोग माँस को मुलायम करने, च्यूंगिगम तथा सौन्दर्य प्रसाधन बनाने में किया जाता है, इसे पाचकीय औषधि के रूप में काम में लाया जाता है, इसमें पाये जाने वाले प्रमुख तत्वों का विवरण निम्न तालिका में दिया जा रहा है।
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papaya ki kheti kaise kare |
उत्पत्ति एवं प्रसार
पपीता दुनिया के उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों का एक महत्वपूर्ण फल है, इसकी उत्पत्ति उत्तरी अमेरिका में हुई है तथा भारत में इसे ‘सोलहवीं’ सदी में लाया गया है, वर्त्तमान में इसकी खेती सभी उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय देशों जैसे आस्ट्रेलिया, हवाई ताइवान, पेरू, फ्लोरिडा, टेक्सास, कैलिफोर्निया, गोल्ड कोस्ट, मध्य एवं दक्षिण अफ्रीका के बहुत सारे भाग, पाकिस्तान, बंगलादेश एवं भारत में की जाती है।
उन्नत किस्में
वाशिंगटन :- फल गोल से अंडाकार होते है, इनका आकार मध्यम से बड़ा हो सकता है, जो लगभग २० सें.मी. लम्बा और ४० सें.मी. गोलाकार तथा एक फल का वजन १ किलो तक हो सकता है।
हनीड्यू :- यह किस्म उत्तरी भारत में काफी प्रचलित है, इसके एक वृक्ष में फलों की संख्या काफी अधिक होती है, जिसमें बीजों की संख्या काफी कम होती है तथा स्वादिष्ट होते है।
सी.ओ.-१ :- यह राँची किस्म से चुना गया है, फल गोल एवं अंडाकार होते है, जिसके रंग सुनहरे पीले होते हैं तथा गुद्दे नारंगी रंग के होते हैं।
सी.ओ.-२ :- यह स्थानीय किस्मों से चुनी गई प्रजाति है, जिसके पौधों की ऊँचाई मध्यम से लेकर लम्बी हो सकती है।
सी.ओ.-३ :- यह एक संकर प्रजाति है जो सी.ओ.-२ x सनराइज सोलो के क्रांसिंग के द्वारा तैयार की गई है, इसके पौधे लम्बे तथा स्वस्थ होते हैं।
सी.ओ.-४ :- यह भी एक संकर प्रजाति है जो सी.ओ.-१ x वाशिंगटन के क्रांसिंग के द्वारा तैयार की गई है, पके फल बड़े एवं गुदे मोटे होते हैं, इसे काफी दिनों तक रखा जा सकता है।
पूसा मेजिस्ट :- इसके फल मध्यम एवं गोलाकार होते हैं, पौधों में जीवाणु जनित रोगरोधी क्षमता होती है।
पूसा जायेन्ट :- यह एक डायोसियस प्रजाति है तथा पौधों में फल एक मीटर की ऊँचाई पर लगते हैं।
पूसा ड्वार्फ :- पौधों में फल २५ से ३० मी. की ऊँचाई पर लगने शुरू हो जाते हैं, अंडाकार फल लगभग १ से २ कि.ग्रा. के होते हैं, यह प्रजाति सघन बागवानी, पोषक वाटिका तथा गृह वाटिका के लिए उपयुक्त हैं।
पंत पपीता-१ :- यह किस्म जी.वी. पंत कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय, पंतनगर द्वारा निकाला गया है, यह एक बौनी प्रजाति है जिसका फल गोलाकार, मध्यम आकार एवं चिकनी त्वचा वाले होते हैं, जिसमें फल ४० से ५० सें.मी. पौधे की ऊँचाई पर लगते हैं, फलों का औसत वजन १.० से १.५ कि.ग्रा. तक होता है तथा उपज ४० से ५० फल प्रति पौधे होता है, यह प्रजाति पपीते के सघन बागवानी के लिए उपयुक्त हैं।
पंत पपीता-२ :- यह भी पंतनगर से निकाली गई प्रजाति है, इसके पौधे मध्यम ऊँचाई के होते हैं, जिसमें फल ५० से ६० सें.मी. की ऊँचाई पर लगते हैं, फल लम्बे आकार के होते हैं तथा उनका औसत वजन १.५ कि.ग्रा. होते हैं, प्रति पौधा फलों की संख्या ३० से ३५ तक हो सकती है।
सभी पूसा प्रजातियाँ :- आई.ए.आर.आई. के क्षेत्रीय स्टेशन, पूसा बिहार से निकाली गई है।
अन्य प्रजातियाँ :- णिराडिमीया, रेड फ्रेशट, फिलिपाइंस, मधुबिंदु, बाखानी, राँची इत्यादि।
मिट्टी :- पपीता एक सदाबहार पौधा है तथा इसके लिए जैविक खाद युक्त उर्वरक मिट्टी उपयुक्त होती है, जिसमें जलनिकास का उचित प्रबंध हो, इसके पौधे के जड़ में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए।
जलवायु :- उष्णकटिबन्धीय जलवायु पौधे के लिए लाभदायक है, यह बहुत अंश तक गर्मी भी सहन कर सकता है, लेकिन निम्न तापमान इसके फलों की बढ़ोत्तरी एवं पकने की क्षमता को कम कर देता है, पाला पड़ने से पपीते की फसल अधिक प्रभावित होती है, अत: पाला प्रभावित क्षेत्रों में इसकी खेती नहीं करनी चाहिए।
क्षेत्रफल एवं उत्पादन :- दुनिया के अनेक देशों में पपीता की खेती की जा रही है, भारत वर्ष में पपीता की खेती अनेक राज्यों में की जाती है, झारखंड राज्य के राँची, सिमडेगा, गुमला, हजारीबाग, लोहरदगा आदि जिलों में व्यवसायिक स्तर पर पपीता की खेती की जा सकती है, भारत में पपीता मुख्यत: केरल, तमिलनाडु, असम, गुजरात तथा महाराष्ट्र में लगाए जाते हैं।
पौध प्रसारण :- पपीते का प्रसार बहुधा बीज के द्वारा किया जाता है, यह एक प्रकार की परागित फसल है, अत: इसका बीज उत्पादन सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
बीजदर :- एक हेक्टेयर में पौधा लगाने के लिए ५०० ग्राम बीज की आवश्यकता होती है, मध्य जून से अक्टूबर के अंत तक बिचड़े तैयार करने का सही समय है, बीज में अंकुरण १५ से २० दिनों में शुरू हो जाता है।
पपीते का प्रसार डाल काट कर भी किया जा सकता है, परन्तु इसमें मेहनत और खर्च ज्यादा पड़ते हैं, इसमें अधिक संख्या में पौधों की आवश्यकता होती है, जिससे उम्दा किस्म के बीज रहित फल वाले वृक्षों का चुनाव कर उससे कटिंग तैयार किए जाते हैं।
बीज से बिचड़ा तैयार करना :- पके फलों से बीज एकत्रित किया जाना चाहिए, बीज बोने के लिए ख़ास तौर पर जमीन तैयार करनी चाहिए और क्यारी की मिट्टी को हल्की करने के बाद बीज बोना चाहिए, क्यारी में नमी की भरपूर मात्रा होनी चाहिए और उसे खरपतवार से ढककर रखना चाहिए, जिससे की मृदा की नमी बनी रहे, जब पौधे ३ से ४ इंच के हो जाएं तो उन्हें उखाड़कर एक दूसरे से ६ इंच की दूरी पर अलग क्यारी में लगाया जाना चाहिए, आवश्यकतानुसार सिंचाई अवश्य की जानी चाहिए, जब ये पौधे ९ इंच के हो जाएं तो इन्हें उखाड़कर निश्चित स्थान में लगाया जाना चाहिए, डायोसिस किस्म के पौधे लगाते समय एक स्थान पर ३ बिचड़ों को लगाना चाहिए।
गड्ढे का आकार :- गड्ढे का आकार ४५*४५*४५ सें.मी. होना चाहिए।
खाद की मात्रा :- वृक्षारोपण के ६ महीने के बाद प्रति पौधा उर्वरक देना चाहिए, नाईट्रोजन १५० से २०० ग्राम, फ़ॉस्फोरस २०० से २५० ग्राम, पोटाशियम १०० से १५० ग्राम, तीनों उर्वरक २ से ३ खुराक में वृक्ष लगाने से पहले फूल आने के समय तथा फल लगने के समय दे देना चाहिए।
बिचड़े लगाने का समय :- मध्य जून से नवम्बर तक नर पौधे एक पोलिनेटर के रूप में कार्य करते हैं, प्रत्येक २० मादा पौधों के साथ एक नर पपीते का पौधा लगाना चाहिए।
सिंचाई :- नमी की कमी और अधिकता के कारण फल उत्पादन कम हो जाता है, इसलिए जाड़े के दिनो में १५ दिन के अंतराल पर तथा गर्मी के दिन में ७ से १० दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए, जब पेड़ फल से लदा हो तो उस समय सिंचाई करना अति आवश्यक है।
निकाई-गुड़ाई :- जिस खेत में पपीता लगा हो, वहाँ के खरपतवार को हटा देना चाहिए, क्योंकि पपीता की जड़ ऊपरी सतह में छितरायी रहती है, ऐसा नहीं करने से फल उत्पादकता घट सकती है, प्रथम वर्ष गहरी जुताई बहुत जरूरी है, क्योंकि खरपतवार ज्यादा होने से पानी खेत में जम जाता है और पौधे मर जाते हैं।
मिट्टी चढ़ना :- वर्षा शुरू होने से पहले प्रति पेड़ गड्ढा में ३० सें.मी. व्यास से मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए जिससे पेड़ सीधा रहे।
तुड़ाई :- परिपक्व फल, एक दिन के अंतराल पर पक जाते हैं तथा उसके छिलके का रंग हरे से पीलेपन में परिवर्तित हो जाते है, जब फल का तरल पदार्थ पानी की तरह हो जाए, तो समझ लेना चाहिए कि फल तैयार हो गया है, १२ से १४ महीने के अंदर फल की पहली तुड़ाई हो जाती है, उत्तरी भारत में, फल बसंत ऋतु एवं गर्मी में तैयार हो जाता है, पहाड़ी क्षेत्रों में फरवरी से मई के महीनों में फल तैयार होते हैं।
पैकिंग एवं भंडारण :- इसके फल को एक सतही कार्टून बक्से में पैक किया जाता है, जिसके अंतर्गत दो फलों के बीच पैकेजिंग मेटेरियल को रखकर पैक किया जाता है, फलों के पकने तथा स्टोरेज के लिए लगभग २० डिग्री.से. तापमान उपयुक्त होता है।
पपेन :- अपरिपक्व पपीते में दुधिया तरल पदार्थ पाया जाता है, जिसके सूखे स्वरूप को पपेन कहा जाता है, औद्योगिक क्षेत्र में इसकी काफी महत्ता है, इसका उपयोग क्रीम, दंतमंजन, सिल्क तथा रेऑन के कपड़ों को डिगमिंग करने में होता है, अमाशय तथा आंत के कैंसर को पता लगाने में भी पपेन का उपयोग होता है, यह डिपथेरिया के इलाज में भी सहायक होता है।
पपीते से पपेन उत्पादन
फल का आकार :- पपेन निकालने में फल का आकार एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, यह पाया गया है कि अंडाकार फलों में पपेन की मात्रा अधिक होती है, १४ इंच ३ सें.मी. लम्बे तथा १० इंच ९ सें.मी. चौड़े फल में पपेन की सबसे अधिक मात्रा पायी गयी है।
फलों की परिपक्वता :- अधपके परन्तु पूर्ण रूप से तैयार फल में अत्यधिक पपेन की मात्रा होती है, ढाई महीने या ७५ दिन पुराने फल में पपेन की मात्रा अधिक पायी जाती है।
प्रजाति :- पपेन की मात्रा, पपीते की प्रजाति पर भी निर्भर करती है, सी.ओ.-२ नामक पपीते की प्रजाति में १०० से १२० कि.ग्रा. पपेन प्रति एकड़ पाया जाता है, ६ महीने के अंतराल में सी.ओ.-२ प्रजाति द्वारा लगभग ७०० ग्राम पपेन निकाला जाता है।
पपेन उत्सर्जन :- पपीते के फल जो करीब ९० से १०० दिन पुराने हो को चुन लिया जाता है, सुबह के समय लगभग १० बजे पपीते को काटकर इसके लेटेक्स को एक बर्तन में जमा कर लिया जाता है, जिसे धूप में ५० से ५५ डिग्री. सें. पर सुखाया जाता है, सुखाने से पहले पोटाशियम मेटाबाइसल्फेट ०.०५ प्रतिशत, लेटेक्स में मिलाया जाता है, ताकि उसके भंडारण अवधि बढ़ जाए, सूखे पपेन को चूर्ण कर उसे बर्तन में संरक्षित कर लिया जाता है।
पपेन की मात्रा :- एक पपीते का पेड़ २२७ ग्राम तक पपेन देता है, प्रति एकड़ ४५.४ कि.ग्रा. पपेन का उत्पादन होता है।
पपीता की मुख्य समस्याएँ
पपीता में मुख्य रूप से नर पौधों की अधिकता तथा पौधों पर रिंग स्पाट वायरस, पपीता मोजैक वायरस तथा कालर राट की समस्या आती है, बगीचे में ज्यादा पेड़ों के लिए डायोसियस किस्मों को लगाते समय एक स्थान पर ३ पौधे लगाये, इनमें से मादा पेड़ों को छोड़कर नर पौधों को निकाल दें, परागण के लिए १० प्रतिशत नर पौधों को छोड़ दें, अन्यथा गाइनोडायोसियस किस्मों का प्रयोग करें।
नियंत्रण :- रिंग स्पाट वायरस तथा मोजैक के नियंत्रण के लिए पौधों के छोटी अवस्था में ही वायरस फैलाने वाले कीटों के नियंत्रण के लिए मोनोक्रोटोफास १.२५ मि.ली. का २ से ३ छिड़काव करे, वायरस के प्रकोप से बचने के लिए पौधों को भरपूर पोषण दें और एक स्थान पर एक साल ही फसल लें, पपीते की खेती स्थानों को बदल-बदल कर लगायें तथा पिछले फसल के अवशेषों एवं रोग ग्रसित पौधों को नष्ट करते रहें, कालर राट के प्रकोप से पौधे जमीन के सतह से ठीक ऊपर गल कर गिर जाते हैं, इसके नियंत्रण के लिए पौधशाला से पौधों को रिडोमिल २ ग्रा./ली. दवा का छिड़काव करें, खेत में जलभराव न होने दें और जरूरत पड़ने पर खड़ी फल में भी रिडोमिल २ ग्रा./ली. के घोल से जड़ सिंचन करें।
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